मैं और बारिशें

मैं और बारिशें
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By Rekha Khanna

कुछ उलझा हुआ मन और उसमें उमड़ते-घुमड़ते कुछ उलझे ख्याल…

कभी कभी बारिश की बूंँदें भी कम पड़ जाती है शुष्क पड़े हुए मन को भीगा देने में। यूं तो बारिश का मौसम बहुत सुहाना लगता है पर मन, मन को तो एक बूंँद भी स्पर्श ना कर सकी कभी। सूखापन कुछ इस कदर हावी हो चुका है शायद बारिश की बूंँदें भी नमी ना दे सकी रती भर भी।

कुछ ख़्वाब जो धीरे-धीरे आँखों में दरख़्त बनने की चाह लिए उगने लगे थे वो सब के सब दफ़न हो गए बे-मौसम के पतझड़ के स्पर्श से।
ख़्वाब, ख़्वाब भी तो बेशर्म है जब देखो आँखों में और दिल में उगने लगते हैं जबकि वे बखूबी जानते हैं कि पूरा ना होने पर उन्हें जिंदा ही दफ़न हो जाना है दिल के कोने में पड़े हुए शुष्क ज़मीं के टुकड़ों में। वो शुष्क ज़मीं जिसे फिर कभी कोई नमी ना छू सकी। जिस पर फिर कभी कुछ ना उग सका। ना आस उगी, ना मोहब्बत उगी और ना ही जज़्बातों की फ़सल उग सकी। वो ज़मीं जो खुद ही एहसासों की नमी को सोखने से मना कर देती है।

बंजर मन और बंजर जिंदगी को क्या कभी कोई बारिश छू कर हरा-भरा कर सकेगी? शायद नहीं क्योंकि बंजर मन पर बूँदे गिरेंगी तो सही पर छूते ही जज्ब होने की जगह हवा में विलीन हो जाएंगी और ज़मीं फिर किसी नमी भरी बारिश की तलाश में तरसती रह जाएगी।

मैं और बारिश, हमारा रिश्ता कुछ ऐसा है कि मैं भीगना भी चाहूँ तो बारिशें खुद ही मुझे नज़र अंदाज़ कर के कहीं दूर निकल जाती हैं ऐसे जैसे उन्हें मुझे हरा-भरा देखने की चाहत ही नहीं।

रेखा खन्ना दिल के एहसासों को शब्दों में ढाल कर पन्नों पर उकेरने करने की कोशिश करती हैं।

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