मन बहुत सोचता है

मन बहुत सोचता है

कवि – अज्ञेय

मन बहुत सोचता है
.

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,
पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए!

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,
खुली घास में दौड़ती मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो—
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो, न हो,
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए!


Copyright © by owner. Provided for educational purposes only.

Subscribe !NS¡GHT to never miss out on our events, contests and best reads! Or get a couple of really cool reads on your phone every day, click here to join our InstagramTwitter and Facebook.

Leave a Reply

%d bloggers like this: