By Shalini Singh
आधार लगते है कई, मज़बूत होने के लिए,
एहसास है आधार एक, ये इश्क़ होने के लिए ।
महसूस करते है कहीं, इस इश्क़ को हम दूर से,
फिर हैं निकलते तब कहीं, जज़्बाती लफ्ज़ फूट के।
होती शुरू फ़िर दास्तां, वादों की और कसमों कि ये,
चलता है लंबा सिलसिला, बातों का इसमें डूब के।
चलती है जाती दास्तां, खोकर अलग सी दुनिया में ।
है इश्क़ मर्यादित नहीं, जो हो अगर तो बात है ।
ना देखती है जात ये, तभी तो है बदनाम ये।
पर इश्क़ करते भी हुए, ये जात किसने देखी है।
जब है समय कुछ बितता, यादों का बढ़ता सिलसिला,
दर्दे मोहब्बत दास्तां की, मोड़ पर ये जाती है ।
होती है नाज़ुक ये कड़ी, लड़ना भी पड़ता है कहीं,
बस है संभालना जान लो, तुमको यहीं पर हर घड़ी ।
कोई संभलता है यहां, कोई बिखर भी जाता है,
टूटा जो गर रिश्ता यहां, जोड़े से ना जुड़ पता है।
वो बात फिर होती नहीं, टूटे हुए उस दिल में तब,
डर जाता है वो इश्क़ को, उससे ही करने के लिए।
खोकर कहीं फिर याद में, लम्हों की उन फ़रियाद में,
खोया जो था वो इश्क़ में, ख़ुदको भी पा लेता है तब।
होती खत्म फिर दास्तां, पर इश्क़ वो मिटता नहीं,
रह जाता बस अफ़सोस है, और संग कुछ बचता नहीं।
एहसास मिट जाते हैं पर, जज़्बात मरते हैं नहीं,
आते हैं पन्नों पे कहीं, जज़्बात लफ़्ज़ों के भी तब।
बस गुम कहीं बातों में इन, शायर भी कुछ बन जाते है,
होती अमर फिर दास्तां, जो अब कहीं पर खत्म है।
Shalini Singh loves to write poetry.