By Shalini Singh
जिंदगी है ये उलझी इसे सुलझायेगा कब,
राह मे हैं जो कांटे उन्हें हटायेगा कब,
यूं जो बैठा रहेगा सबकुछ छोड़ कर,
तो दुनिया को अपनी काबिलियत दिखाएगा कब ?
है ना आसान कुछ भी यहां,
पर नामुमकिन भी तो कोई चीज़ नहीं,
ख्वाहिश तेरी मोहताज है मेहनतों की,
इस बात को ख़ुद को समझायेगा कब ?
बिखरे हैं जो तेरे टूटे सपने कहीं,
उनको मेहनत की माला मे पिरोएगा कब ?
रख दे सब ताक पे ख्वाहिशों के बले,
वरना ख़ुद को साबित कर पाएगा कब ?
रख तू लेगा सबक़ हालातों के बुरे,
अपने सही वक़्त को तू ये दिखलाएगा कब,
भूल जा पन्ने कुछ पल अतीत के कहीं,
वर्ना ख़ुद क आगे बढ़ाएगा कब ?
उठ जा चल तू भी यूँ ना सोता सा रह,
वक़्त को यूं ही सपनों मे खोता सा रह,
हाथ से तेरे कभी जो ये निकल जाएगा,
हाथ मलता सा तू फिर सिर्फ रह जाएगा,
ख़ुद को इस हक़ीक़त का सामना कराएगा कब ?
छोटी सी जिंदगी है ये बढ़ता सा चल,
वर्ना मंज़िल तक अपनी पहुंच पाएगा कब ?
वर्ना मंज़िल तक अपनी पहुंच पाएगा कब ?
Shalini Singh, from Maharashtra, India, is a student and loves to write poetry.