By Shahabia Khan
आँखों में बीती सारी रात हम ना सो पाए
यादों में उनकी हमारी आँखें हरदम रो जाए
आसमाँ में मेहताब को देख उनका तसव्वुर आ जाए
तन्हाई का एहसास तभी दिल को बेचैन कर जाए
ख़ामोशी का पहर वो हिज्र की याद दिला जाए
बेपीर बेदर्द सा बनकर वो रूह को ज़ख्म दे जाए
चार सू हर दफ़ा ब-सबब ज़ेहन में वो ही आ जाए
जिसकी मिली है सज़ा बस इंतेज़ार में ही बीत जाए
हर पहर सोच में गुज़रे की कब चौखट पर वो आ जाए
देख उनको ही बस मेरा दिल फक़त यूँही मेहक जाए
इंतिहा हो गईं आँसुओं की इस ज़ीस्त में अब मेरी ही
हर रोज़ बिन देखें सारी रात ‘शहाबिया’ की यूँही गुज़र जाए
Shahabia Khan tries to express herself through her writings. Her poems have been anthologized in two books.