By Rekha Khanna
दिमाग़ की अलमारी में यादों की किताबें हैं
कुछ पर जमी है गर्द और कुछ अभी झाड़ी हैं
अनगिनत हैं खाने और अनगिनत किताबें
कुछ बहुत पुरानी हैं कुछ अभी नई ही डाली हैं
पुरानी जो हैं वो कुछ कट फट रही हैं
लेकिन फिर भी कहानी पूरी कहती हैं
कभी कभी यूंँ उलझ भी जाती हूंँ
जब याद इक देखने को अलमारी की तरफ बढ़ती हूंँ
हर याद पुकार लगाती हैं पहले मुझे देखो
अनगिनत आवाज़ों से घबरा कर अलमारी बंद कर देती हूंँ
अक्सर ये आवाजें उन्हीं किताबों से आती हैं
जिन पर मैंने इक गहरा काला कवर चढ़ाया है
ताकि मुझे याद रहे इनमेंकुछ दिल दुखाने वाला है
परंतु कुछ काली यादें बढ़ी ही ठीठ किस्म की हैं
अच्छी यादों पर अक्सर भारी पड़ जाती हैं
दिमाग़ की अलमारी पर ताला भी लगाती हूंँ
फिर भी ना जाने कैसे दरवाज़े की दरारों से बाहर निकल आती हैं
कश्मकश में हूंँ ऐसा क्या करूंँ कि
सुहानी यादों को सुनहरे कवर में संजो कर रखूंँ
काला रंग देखो धीरे धीरे सबकुछ निगल रहा है
अपनी कड़वी सच्चाई से अच्छी यादों को झुठला रहा है
मन में इक वहम भी होने लगा हैं शायद अच्छा कुछ भी नहीं बस हर तरफ आग जल रही है
यादें हैं कि पीछा ही नहीं छोड़ती
ख़ुद-ब-ख़ुद अलमारी में अपनी जगह बना कर ख़ुद को कैद कर लेती हैं
कभी कभी लगता हैं ये नहीं मैं ही इनमें कैद हो रही हूंँ
मैं यादों को रिहा नहीं कर रही यां मुझे ही इनसे रिहाई नहीं मिल रही है
बस यही जंग दिल पर भारी हैं और
मेरी अलमारी मेरी उलझन पर मुस्कुरा रही है
Rekha Khanna tries to mold feelings into words, each time pouring a new passion on the paper.