खारापन

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By Rekha Khanna

दिल में खारापन जब भर जाता है
धीरे-धीरे दिल की दीवारों पर इक काला रंग चढ़ जाता है,
जैसे काई सी जमती जा रही हो
शक्ल और सूरत भी फ़िर चमक खोती चली जाती हैं।

खारापन भी ऐसा जो दिल की जमीं को
धीरे-धीरे बंजर बनाता जाता है,
जहां फ़िर से विश्वास और मुहब्बत के बीज नहीं पनपते,
पनपता है तो सिर्फ़ उदासी और निराशा का वो पौधा
जो बीते वक्त के साथ मज़बूत जड़ों का पेड़ बन जाता है।

दिल में जब खारापन भर जाता है,
हर जख्म पर नमक चुभता नज़र आता है,
कभी-कभी कुरेद-कुरेद कर देखती हूं मैं
अभी भरने में और कितना वक्त बाकी है।

जो दिल की गहराईयों में बसता था कभी,
क्यूं अब वो अनजान नज़र आता हैं ?
बेरूख़ी की इंतेहा तो देखो,
अब पहचानने में भी वक़्त लगाता है।

जिस्मानी नज़दीकियों को मुहब्बत कहने वाला,
पूछता हैं ये रूहानी प्यार क्या होता है ?
मन ख़ुद को ही धिक्कारता है, अपनी ही पसंद पर
दिल में फिर खारापन भर जाता है।

जो भी हाथ लगाने की कोशिश करेगा
मेरे अंदर का खारापन तेेज़ाब बन उसे जला देगा,
ख़ुद को ख़ुद में ही समेट कर यूं महफूज कर लेती हूं,
जैसे इक कवच खारेपन का हर पल ओढ़े हुए हूं।
जिसे भेद कोई मुझ तक पहुंच नहीं सकता,
कुछ यूं अपनी तल्ख़ियों के संग जी लेती हूं।

Rekha Khanna tries to mold feelings into words, each time pouring a new passion on the paper.

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